Monday 18 September 2017

[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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आत्मचिंतन का सार, अपने से अपना परिष्कार।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 245/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
अपना निरीक्षण ही आत्म चिंतन की ओर प्रशस्त करने वाला क्षण होता है। जब व्यक्ति आत्म चिंतन की और आगे बढ़ता है तब वह संसार से बहुत ज्यादा दूर पहुँच जाता है। फिर रिश्ते नाते सारे पीछे छुट जाते हैं। आत्म चिंतन ही आत्मसिद्धि का हेतु बनता है। आत्मचिंतन की प्रक्रिया बहुत ही सहज सरल है। इसमें कुछ भी करना नहीं पड़ता है। केवल स्थिरता का साथ चंचलता पर लगाम लगाकर अपने आप को देखना पड़ता है। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाना है, मैंने आज तक क्या किया, क्या नहीं किया, क्या कर सकता हूँ, अब क्या करना है, क्या नहीं करना है और अब क्या कर सकता हूँ, यह चिंतन स्वस्थ व अपने आप को विश्वस्त बनाता है। सकारात्मक व नकारात्मक दोनों स्थितियों का सम्यक बोध हो जाता है। अच्छाइयों व बुराइयों का लेखा जोखा सामने स्पष्ट रूप से आ जाता है। बुराइयों को अच्छाइयों के रूप में परिवर्तित कर के आगे बढ़ना ही आत्मचिंतन है। जो साधक इस उपक्रम को व्यवस्थित रूप से सम्पादित करता रहता है वो सफल हो जाता है।
पर्युषण महापर्व का हार्ट ही आत्मचिंतन है। मौन, जप, स्वाध्याय, ध्यान, तप, यह सब तो एकाग्रता बढ़ाने के साधन है। आत्मचिंतन साध्य होता है। यदि हमारा आत्मचिंतन का साधन सफल हो गया तो हमारा साध्य सफल हो जायेगा। हमारा पुरुषार्थ पुरुस्कृत होकर ही रहेगा। आत्मचिंतन का दौर प्रारम्भ होते ही चिंतन मनन व आचरण अपने आप ही सकारात्मक बनते जायेंगे। सकारात्मक चिंतन ही हमारे को सही दिशा दर्शन प्रदान करने वाला होता है। मन का मेल चिंतन के प्रवाह में अपने आप प्रवाहित हो जाता है। हमारा मन स्फटिक की तरह पारदर्शी व समुज्ज्वल बन जाता है। जिसमे झांककर कोई भी अपना चेहरा निहारने में सफल हो सकता है। हमारा दर्शन हमारा दर्पण बन जाता है। आत्मचिंतन से बड़ा सुख संसार में नहीं है। यदि संसार में, समाज में, संसार में रहकर व्यक्ति सुखी बनना चाहता है तो उसे आत्मचिंतन का द्वार हमेशा खुला रखना चाहिए। अंधकार को प्रकाश में परिवर्तित करने का उपाय बनता है आत्मचिंतन व आत्मावलोकन। रात को प्रभात में बदलना ही अनासक्त चेतना का जागरण है। आसक्ति का विलोपन होना ही एक तरह से साधना की सफलता है। जब हमारा चिंतन बाहरी व पदार्थवाही होगा तब तक हम स्वस्थ नहीं बन पाएंगे। हमारे भीतर में बीमारी के कीटाणु बढ़ते जायेंगे। वही कीटाणु महामारी के रूप में हमारे सामने आकर हमारे को बिमारियों से ग्रस्त बना देंगे। उन बिमारियों से छुटकारा पाना हमारे लिए मुश्किल हो जाता है। फिर एकमात्र उपाय हमारे सामने शेष रहता है- आत्मचिंतन का। जब हम इस सूत्र को आत्मसात करेंगे तब ही निषेचन का दौर प्रारम्भ होगा। हमारी मन की बिमारियों से जो विचार कुंठित हो गए थे वो बाहर निकलना प्रारम्भ होंगे। मन हल्का होगा तो चिंतन स्वस्थ होगा। वह चिंतन ही हमारे आत्मभिमुखी बनाने वाला होता है। आत्मचितन नवशक्ति के श्रोत को प्रवाहित करने वाला बन जाता है। हमारी सात दिवसीय साधना सफल व सार्थक बन जाती है। हमारा बहाया हुआ पसीना मोतियों की तरह चमकने लगता है।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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क्षमायाचना का सार, हल्का बने जीवन व्यवहार।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 246/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
अन्तःकरण की शुद्धि का नाम है- क्षमायाचना। जब मन हल्का होता है तब क्षमा के भावों का जागरण होता है। क्षमा का जागरण होते ही वर्ष भर का मेल अपने आप प्रवाहित होकर बहने लग जाता है। मन स्वच्छ व सरल बन जाता है। मन की सरलता ही व्यक्ति को सरल बनाती है। बिना सरलता के मन में क्षमा के भावों का विकास नहीं हो सकता है। बिना क्षमा के व्यक्ति कभी महान नहीं बन सकता है। चाहे आप किसी भी महापुरुष का जीवन उठाकर देख ले या आगम, त्रिपिटिक, वेद, कुरान, पुराण, किसी भी ग्रन्थ को उठाकर देख ले। किसी भी संघ या पन्थ के पन्थियों के जीवन को जानने व समझने का प्रयास करे। बिना चोट खाये या क्षमा किये कोई महान बना है क्या! क्षमा के भावों का जागरण बाहर में नही भीतर में होता है। बाहर तो केवल व्यक्ति के शब्दों द्वारा प्रगटीकरण होता है। शब्दों का विशेष महत्त्व नहीं होता है। महत्व होता है भावों का। जब तक भावों का शुद्धिकरण नहीं होगा तब तक क्षमा का जो आदर्श रूप सामने आना चाहिए वो नहीं आ पायेगा।
यदि हमने सरलता के साथ क्षमायाचना नहीं की तो पर्युषण केवल पर्व बनकर रह जायेगा। समय पास के सिवाय हमारे हाथ में कुछ नहीं आएगा। वक्त निकल जायेगा। हम समय के बहाव में बहते हुए इस लोक से परलोक में प्रस्थान कर जायेंगे। पीछे केवल अपमान के सिवाय कुछ शेष नहीं बचेगा। हमारे भार से हम और ज्यादा जन्म मरण के चक्कर में फंसते जायेंगे। क्षमायाचना दिवस हमारे को इस चक्र से मुक्ति दिलवाने का एक सरल उपाय है। क्षमा का भाव जागृत होते ही हमारी वाणी में विनम्रता व व्यवहार में सरलता स्पष्ट सबके सामने झलकने लग जायेगी। मनुष्य जीवन की नश्वरता का भी हमारे को बोध हो जायेगा। हमारा सम्यक बोध ही हमारे कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। क्षमा मांगने वाला हमेशा महान होता है। जो सरलता से क्षमा मांग लेता है उसका पाप धूल ही जाता है। सामने वाला क्षमा प्रदान करे या नहीं करे वह उस पर निर्भर है। हम हमारे दायित्व का निर्वाह करके भार से निश्भार अवश्य ही बन जाते हैं। हमारा काम फलों का रसास्वादन करने का है, फलों की गिनती का नहीं। क्षमा मांगना हमारा दायित्व है। कोई क्षमा करता है या नहीं उस पर ध्यान देना हमारा काम नहीं है। आज का दिन तो केवल सहज व सरल बनने का दिन है। निर्मल बनने वाला ही सुखी व शांत रह सकता है। वैर का कांटा हमेशा हमारे मन में खटकता रहता है। पर जब वह कांटा निकल जाता है। तब हमारा पथ निष्कंटक बन जाता है। वह राजपथ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। फिर उस पथ पर चलने का आनन्द ही अपरम्पार होता है। क्षमा उस व्यक्ति को ही सुशोभित होती है जो जहरीला है और आज उस जहर को उगलकर या निगलकर हमेशा हमेशा के लिए शांत बना देता है। सरलता के साथ स्नेह का दरिया प्रवाहित कर देता है। वह दरिया ही वैर को अपने साथ प्रवाहित कर ले जाएगा । सबके दिलो में स्नेह का संचार हो जायेगा। हमारा क्षमायाचना का पावन पर्व सार्थक व सफल हो जायेगा।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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क्षमा का प्रवेश, बदल देता है सारा परिवेश।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 247/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
क्षमा के भावों से जब आत्मा भावित होने लग जाती है तब अन्तःकरण की शुद्धि स्वतः ही प्रारम्भ होने लग जाती है। जब अन्तःकरण पाक होता है तब दिल व दिमाग स्वतः ही पवित्र व उज्ज्वल बन जाता है। विचारों में शुद्धि व स्वच्छ भावों का जागरण व्यक्ति के विकास का मार्ग प्रशस्त करने वाला बन जाता है। अध्यात्म का अंकुर हमेशा ही क्षमा की बगिया में ही खिलता है। इसलिए कहा गया है कि क्षमा से बढकर संसार में कोई धर्म नहीं है। क्षमा का अवतरण होते ही स्नेह समर्पण व सहजता की पावन गंगा तीव्र वेग से प्रवाहित होने लग जाती है। जो ईर्ष्या द्वेष व घृणा के कचरों को अपने साथ प्रवाहित करके ले जाता है। मानव काँच की तरह साफ़ हो जाता है। उस काँच में कोई भी अपना चेहरा निहार सकता है।
दश लक्षण पर्व क्षमा के साथ प्रारम्भ होता है। जब तक मन में क्षमा के भावों का जागरण नहीं होता है तब तक हम पर्व के भीतर प्रवेश करने में सफल नहीं हो सकते। क्षमा के साथ ही प्रेम व स्नेह के भावों का जागरण होता है। फिर व्यक्ति संसार में किसी भी प्राणी को छोटा या बड़ा नहीं मानता है। सबको एक समान मानने लग जाता है। निर्धन व धनवान की भेद रेखा समाप्त हो जाती है। सहअस्तित्व के भावों का जागरण प्रारम्भ होने लग जाता है। समता धर्म का अवतरण होते ही सम्यक्त्व के भावों की पुष्टि होनी प्रारम्भ हो जाती है। सम्यकदर्शी किसी के दिल को दुखा नहीं सकता है। दुखते व टीसते हुए नासूर पर जरूर मरहम लगाना प्रारम्भ कर देता है। संवेदना की महान धारा अंदर प्रवाहित होने लग जाती है। जब किसी के दिल में आग लगती है तो उसका दिल भी जलने लग जाता है। किसी के दिल पर छुरी चलती है तो उसका कलेजा छिलने लग जाता है। किसी को चोट लगती है तो उसका कलेजा हिलने लग जाता है। जब ऐसे भावों का जागरण होता है तब क्षमा का साक्षात आदर्श हमारे सामने उपस्थित होता है। कथनी व करनी एकाकार बन जाती है। पर व स्व एकाकार हो जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना जागृत हो जाती है। क्षमा का आदर्श हमारे को महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं वो सब इसी क्षमधर्म के कारण ही तो प्रतिष्ठित हुए हैं और आज भी हमारे प्रेरणा के श्रोत बने हुए हैं। दस लक्षण में जब क्षमा का पर्व आता है तब क्षमा के महान अवतारी पुरुष भगवान महावीर का वह प्रसंग आँखों के सामने तैरने लग जाता है जब भयंकर विशाल वह फणधर चण्डकौशिक  जो अपनी क्रोध की फुफकार के कारण सबके मन को भयभीत करने वाला बन गया था। उसकी फुंफकार से सारा जंगल वीरान हो गया था। हरियाली जलकर भस्मीभूत हो गयी थी। धरा बंजर बनती जा रही थी। पर जब करुणा, दया व वीतराग पथ के महान पथिक महावीर स्वयं चलकर उसकी बांबी पर आकर खड़े हो गए। यह देखकर वह जलभुन गया था। उसने विषैले जहर का डंक महावीर के लगाया। खून की जगह दूध धारा प्रवाहित होने लग गयी। दूध का मीठापन चण्डकौशिक के जहर को अमृत में परिवर्तित कर क्षमारूपी दस लक्षण पर्व को सार्थक बना देता है।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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कुशल कलाकार थे- आचार्य कालूगणी।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 248/ लावा-सरदारगढ़】
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कुशल कलाकार ही कुशल घट का निर्माण करने में सफल हो सकता है। घड़े का निर्माण उसकी कुशलता का परिचायक बन जाता है। जो भी उस घट को देखता है, परखता है, उसके निर्माता की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। उसके भीतर का मधुर व ठंडा जल सबके कलेजे को शीतलता प्रदान करने वाला बन जाता है। गुरु का काम है, शिष्य का निर्माण करना। शिष्य की बागडोर, चोटी हमेशा गुरु के हाथ में रहती है। गुरु यदि शिष्य के निर्माण में पुरुषार्थ नहीं करता है तो यह गुरु के गुरुत्तर दायित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा सकता है। गुरु निर्माण में पुरुषार्थ कर रहे है और यदि शिष्य के भीतर में उपादान नहीं है तब भला गुरु भी क्या कर सकते है! किन्तु गुरु यदि सौ शिष्यों में से दो शिष्यों का भी सही निर्माण कर देते हैं तो गुरु का पुरुषार्थ सार्थक हो जाता है। वो दो शिष्य ही गुरु को विश्व जनमानस में प्रतिष्ठित करने में सफल हो जाते हैं। भगवान को पूजाने वाला हमेशा भक्त ही होता है। यदि भक्त ताकतवर है तो वो गुरु को भगवान बना देता है।
आचार्य कालूगणी ने अपने जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य किया वह था, शिष्यों का निर्माण करना। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने अपने आप को शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया। आचार्य पद पर आसीन होने के बाद वो एक बालक की तरह एकांत में बैठकर एक एक पद्य को रट रटकर याद करने का प्रयास करते। वह कंठस्थ ज्ञान ही उनके लिए निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाला बना। ताड़ना व पुचकारना ये दोनों मंत्र अपने पास रखते थे। अच्छा कार्य करने वाले, ज्ञान को कण्ठस्थ करने वाले व ज्ञान का परावर्तन करने वाले शिष्यों को प्रोत्साहित करते रहते थे तो जो आलसी व प्रमादी होते प्रताड़ना से प्रताड़ित करते रहते थे। दोनों उपाय हो कारगर साबित होते जा रहे थे। प्रोत्साहन पाकर शिष्य विकास के शिखरों को छुने का प्रयास करते तो प्रताड़ना से प्रताड़ित अनुभव करते हुए शिष्य अप्रमादी बनने का प्रयास करते। तेरापंथ धर्मसंघ में ज्ञान के क्षेत्र में विकास में आचार्य कालूगणी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। संस्कृत भाषा के विकास के सुनहरा भविष्य का इतिहास रचा गया तो महाराष्ट्र व सुदूर दक्षिण प्रदेश में साधू साध्वियों के विहार व विचरण का मार्ग प्रशस्त बना। आज जो तेरापंथ का सुरम्य उपवन खिल रहा है, उसका श्रेय आचार्य कालूगणी को ही है। ऐसे व्यक्तित्व के धनी पुरुष का जब महाप्रयाण दिवस आता है तब हमारे को उनके जीवन दर्शन का सिंहावलोकन करने का अवसर प्राप्त होता है। उनकी कर्तव्य निष्ठा व कष्ट सहिष्णुता के साथ वचन बद्धता का अनुपम संगम स्थल ने उनके जीवन त्रिवेणी संगम स्थल के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। प्राण जाये पर गृहस्थ की सावद्य सेवा नहीं लेना। चाहे कितने मरणान्तिक कष्ट आये उनका निडरता से सामना करना। एक एक कदम चलकर गंगापुर हर हालत में पहुंचकर दिए हुए वचन की अनुपालना करना उनका ध्येय था। उन्होंने अपने संकल्प में सफल होकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। भक्तों को ही नहीं विरोधियों को भी झुकने व नमने के लिए मजबूर कर दिया। उनके द्वारा निर्मित दो शिष्य मुनि तुलसी व मुनि नथमल ने तेरापंथ सरताज बनकर अपने गुरु की प्रतिस्ठा से सबको परिचित कराने में सफल हो गए। आचार्य श्री तुलसी व आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जहाँ नाम आता है, वहां आचार्य श्री कालूगणी की महान तस्वीर स्वतः ही उभरकर सामने आ जाती है।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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मृदुता का विकास-फैलाये चारो तरफ सुवास।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 249/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
मृदुता मुक्ति का राजपथ है। जो व्यक्ति मृदु व्यवहार करता है वह व्यक्ति सबको अपना बना लेता है। पराये को अपना बनाने का महान मंत्र मृदुता है तो अपने को पराया बनाने वाली है- कटुता। जहाँ कटुता होती है वहां क्रूरता का जन्म होता है। जहाँ पर मृदुता होती है वहां स्नेह का संचार होता है। स्नेह के बाहुपाश में एक बार जो आबद्ध हो जाता है फिर वह जिंदगी भर दूर छिटक नहीं पाता है। वह तो निकट से निकटतम बनता जाता है। मृदुता महानता की एक कसौटी है। कंटकीर्ण पथ को सहज व सुलभ बनाने वाला होता है- मृदुता के भावों को जागरण। मृदुता एक सौंदर्य है। मन में जब मृदुता का जन्म होता है तब व्यक्ति की वाणी अपने आप मधुर बन जाती है। कोयल काली होते हुए भी अपने मधुर स्वर के कारण सबकी प्यारी बन जाती है। मृदुता की बंसी जब बजने लगती है तब मन उपवन एक तरह से खिलने लगता है। खिलता हुआ उपवन सबके लिए एक आकर्षण का केंद्र बन जाता है।
दसलक्षण पर्व जब आता है तब मन में मृदुता के भावों का जागरण होता है। क्षमा के साथ ही मन का मैल बाहर निकल जाता है। भीतर में मृदुता के अंकुर प्रस्फुटित होने लग जाते है। वह अंकुर ही जब फूल बनकर हृदय के द्वारा भावों के साथ मुंह से बाहर निकलता है तब वचन रूपी फूलो की सुवास से सारा वातावरण सुवासित होने लग जाता है। मृदु व्यवहार से निकलने वाले स्वर चीनी से भी ज्यादा मिठास लिए होते है। हमारे कर्ण उन स्वरों को सुनने के लिए हर समय लालायित रहते हैं। मृदु व्यवहार सारे वातावरण को एक क्षण में परिवर्तित करने वाला बन जाता है। सम्बंधों को तोड़ने व जोड़ने का काम हमारा व्यवहार व शब्द ही करते है। संसार की संरचना करने वाला हमारा आदर्श व्यवहार ही होता है। समरसता की मधुर धार जब प्रवाहित होती है, तब सारा वातावरण प्रेममय बनने लग जाता है। उसके पीछे कारवां अपने आप जुड़ने लग जाता है। जब हम किसी को कुछ दे तो सबसे अच्छी चीज जो हमारे पास हो वो ही देने का प्रयास करें तब ही दी हुई वस्तु की उपयोगिता है। वह वस्तु हमारे लिए यादगार बन जाती है। मृदुता कर्मों के बन्धन से हमारे को आजाद बनाकर स्वतंत्रता की श्वांस प्रदान करने वाली बन जाती है। संसार में जिओ तो कैसे जिओ, मरों तो कैसे मरों, यह विवेक हमारे को मृदुता सिखलाती है। हँसते हुए जिओ और हँसते हुए मरो तब ही हमारे जीवन की सफलता है। रोते रोते जीना और रोते रोते मरना सबसे बड़ी विफलता है। विफलता को सफलता में बदलने का सूत्र है, मृदुता का जागरण। जब अन्तःकरण में मृदुता का झरना प्रवाहित होने लग जाता है तब हमारा कण कण प्रफ्फुलित होने लग जाता है और हमारा क्षण क्षण सार्थक होने लग जाता है। हमारा आंतरिक सौंदर्य तो खिलता ही है, साथ में चेहरा भी दैदीप्यमान बनने लग जाता है। हमारे भीतर ऊर्जा का महान श्रोत प्रवाहित होने लग जाता है। वह ऊर्जा हमारे को तपस्वी ओजस्वी व वर्चस्वी बनाती है। हमारा व्यवहार तेल की बून्द की तरह सारे संसार रूपी सागर में तैरने लग जाता है। हमारा जीवन सूर्य की किरण की तरह सबके लिए जागरण का संदेश बन जाती है। ज्योति से ज्योति फिर हमेशा जलती ही रहती है।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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संकल्प शक्ति व जागरूकता के सन्देश वाहक थे- आचार्य भिक्षु।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 250/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
संकल्प शक्ति के सामने सब शक्तियों को नतमस्तक होना पड़ता है। संकल्पवान व्यक्ति अपने पौरुष के साथ हमेशा आगे बढ़ता रहता है। राह में आने वाले रोड़े अपने आप दूर हटते रहते हैं। कंटीला मार्ग भी हरी भरी सुरम्य घाटी के रूप में परिवर्तित हो जाता है। जो व्यक्ति संकल्पवान होता है वो संघर्षों को देखकर घबराता नहीं है। बल्कि दुगुने साहस के साथ अपने कदमों को आगे बढ़ाकर संघर्षों को समाधान में परिवर्तित कर नए इतिहास का निर्माण कर देता है। ऐसे फौलादी व्यक्ति सभी के लिए प्रेरणा के श्रोत बनते हैं। साहसी व्यक्ति हमेशा ही सम्मान प्राप्त करते हैं। उनका स्वर्गवास भी साहस की प्रेरणा प्रदान करता है।
आचार्य भिक्षु भी साहस के ऐसे ही पुजारी पुरुष थे। जब वो सतपथ पर आगे बढे तब बगड़ी गांव की जनता बिगड़ गयी थी। ननिहाल ससुराल के पारिवारिक जन भी अपने कर्तव्य व दायित्व बोध को भूलकर विरोध के रूप में सामने खड़े हो गए थे। रुकने के लिए स्थान नहीं, खाने के लिए भोजन नहीं, पीने के लिए पानी नहीं। जनता ही नहीं प्रकृति भी कष्टदायक बन जाती है। आंधी तूफान का जबरदस्त झंझावात। आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध। पर साहस के पुरोधा पुरुष घबराते नहीं है। और दृढ़ता के साथ कदम बढ़ाते हुए श्मशान को अपना प्रवास स्थल बना लेते हैं। जेतसिंह जी की छतरी उनका आश्रय स्थल बनती है। जहाँ मरने के बाद शरण मिलती है उस स्थान का वरण मुनि भीखण ने जीते जी करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया। जो व्यक्ति मरने से नहीं घबराता उस व्यक्ति को आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है। उसके द्वारा वपन किया हुआ बीज एक दिन विशाल वट वृक्ष का रूप धारण करके ही रहता है।  उस संघर्ष का नाम है, तेरापन्थ। भगवान का पथ। उनके साहस के सामने केलवा में यक्षराज भी नतमस्तक हो जाते हैं। अँधेरी ओरी ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो जाती है। राजनगर में तीव्र तप मलेरिया बुखार भी सत्य के स्वीकरण के बाद पलायन करने को मजबूर हो जाता है। सिरियारी की तपस्विनी नदी उनकी तपस्या को देखकर चोंक जाती है। ज्येष्ठ माह में सूर्य के आताप से आतापित नदी का पार आग उगलने व सबको निगलने को आतुर रहता है। उस समय दोपहर बारह बजे के समय आँख पर पट्टी बांधकर व वस्त्रों का परित्याग कर उस नदी में लेटकर अपने पसीने से नदी के उस स्थान को तरबतर कर देते हैं। वह साहस देखकर नदी भी आशीर्वाद देने के लिए तत्पर हो जाती है। जीवन के अंतिम काल में जागरूकता का दिव्य सन्देश प्रदान कर मृत्यु का वरण करते हैं। जब दर्जी बैकुंठी विमान को सजाकर कपड़े पहनाकर सुई को अपनी पगड़ी में टांगते हुए यह स्वर गुंजायमान किया- मैंने तो अपना कार्य कर दिया अब तो आपके बिराजने की देरी है। सोते हुए शेर के जागरण का सन्देश बन जाता है। उसी क्षण पद्मासन में बिराजमान होकर एक क्षण में महाप्रयाण का मार्ग प्रशस्त कर देह से विदेह की यात्रा पर रवाना हो जाते हैं। संकल्प शक्ति सबके लिए प्रेरणादायी बन जाती है।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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सद्गुणों के प्रेरणा स्त्रोत होते हैं- शिक्षक।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 251/ लावा-सरदारगढ़】
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एक सद्गुण व्यक्ति को महान बना देता है। संसार में हर जगह गुणों की पूजा होती है। जो व्यक्ति एक एक गुण को धागे में पिरोना प्रारम्भ कर देता है, उस व्यक्ति का जीवन सद्गुण रूपी मोतियों की माला बन जाता है। ऐसे व्यक्तियों का स्मरण दुनिया सुर्योदय के साथ करती है। सद्गुण रूपी सूर्य का उदय होते ही दुर्गुण रूपी विकार अपने आप पलायन करने लग जाते हैं। अंधकार प्रकाश में परिवर्तित होने लगता है। सूर्य का काम होता है, नवप्रकाश का सृजन करना। अन्धकार को प्रकाशमय बनाना। शिक्षक एक महान सूर्य की तरह होते है। जो विद्यार्थियों के भीतर अज्ञान व अशिक्षा रूपी अंधकार का परिमार्जन कर उसकी कालिमा को हटाते हैं। एक शिक्षक पुरे विश्व को प्रकाशमय बनाने में सफल हो सकता है। उसका जीवन दीपक से दीपक जले कहावत को चरितार्थ करता है।
शिक्षक दिवस हमारे को सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की याद दिलाता है। कैसे वो एक शिक्षक की भूमिका निभाते हुए देश के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। उनका जीवन बालक की तरह निश्छल व पवित्र था। ज्ञान का विकास करना ही उनका मुख्य ध्येय था। देश के विकास के साथ चारित्रिक विकास का भी वो विशेष ध्यान रखते थे। देश के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद वो अपनी जिम्मेदारी को कुशलता से निभाते जा रहे थे। जब देश के नैतिक उत्थान के लिए आचार्य तुलसी अपनी पदयात्रा के माध्यम से अणुव्रत की ज्योति को प्रज्ज्वलित करते हुए दिल्ली पधारे, उस समय दिल्ली का वातावरण अणुव्रतमय बनता जा रहा था। देश का सर्वोच्च नेतृत्व अणुव्रत का समर्थन कर रहा था। उस समय डॉ. राधाकृष्णन ने कहा आपको पं. नेहरू से मिलना चाहिए। मैं स्वयं नेहरू को पत्र लिखूंगा। नेहरू व तुलसी मिलन व वार्तालाप में उन्होंने सेतु का कार्य किया। पं. नेहरू अक्खड़ स्वभाव के रूप में प्रसिद्ध थे। मिलते ही नेहरू ने कहा- आचार्य जी आपकी क्या मांग है? आप सरकार से क्या सहयोग चाहते हैं? हम सहयोग मांगने नहीं, सहयोग करने आये हैं। यह पांच सौ परिवर्जकों की सेना देश के नैतिक व चारित्रिक विकास के लिए समर्पित है। आप इनका खुले दिल से प्रयोग कर सकते हैं। इस एक विचारधारा ने नेहरू के विचारों में प्रकम्पन पैदा कर दिया। विचारों की शुद्धि हो जाती है। ब्रेन वाश होते ही विचारधारा परिवर्तित हो जाती है। वह लम्बी मुलाकात देश की दशा व दिशा परिवर्तित करने वाली साबित होती हैं। बौद्ध धर्म गुरु दलाई लामा के साथ लम्बी वार्ता होती है। परिणाम स्वरूप दलाई लामा को भारत में संरक्षण प्राप्त होता है। नैतिकता का विकास प्रारम्भ होता है। देश के नैतिक विकास में इस तरह से अपनी मुख्य भूमिका डॉ. राधाकृष्णन ने निभाने का प्रयास किया। उनका जन्मदिवस पुरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। शिक्षक ही देश के भविष्य को बनाने वाले होते हैं। यदि शिक्षक संस्कारवान बनकर विद्यार्थायों को संस्कारवान बनाना प्रारम्भ करे तो हम देश का नवनिर्माण करने में सफल हो सकते हैं। एक बालक का निर्माण करना एक परिवार समाज व राष्ट्र के निर्माण करने के समान होता है।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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ब्रह्मत्व को प्राप्त करने का मार्ग है- ब्रह्मचर्य।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 252/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
जीवनी शक्ति का नाम है- ब्रह्मचर्य। जो व्यक्ति ब्रह्मत्व को प्राप्त करना चाहता है उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वोत्तम उपाय है। ब्रह्म के नजदीक ले जाने वाला है, ब्रह्मचर्य। इसकी साधना बहुत ही सहज व सरल है। यदि मनोभावों को पवित्र रखने का प्रयास करें तो ब्रह्मचर्य से बढ़कर संसार में कोई तेज नहीं है। उस तेज के सामने सारे प्रकाश निस्तेज बन जाते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला व्यक्ति अपने वर्चस्व के द्वारा सारे संसार में भीष्म पितामह की तरह प्रतिष्ठित हो सकता है। केवल इस एक व्रत के कारण ही उनको इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति का व्यक्तित्व हमेशा निखरता रहता है। उसके तेज से सारा संसार प्रभावित होता है। स्वामी विवेकानन्द ने ब्रह्मचर्य के वर्चस्व के कारण पुरे विश्व में अपना लोहा मनवाया था। अनेकों ललनाएँ, विश्व सुंदरियाँ उनके सहचार्य के लिए तरसती रहती थी। उनके सामीप्य के लिए ललचाती थी। पर उनके तेज व ओज के कारण उनके निकट आने का साहस नही कर पाती थी। ब्रह्मचर्य के सामने मानव तो क्या देव व दानव भी नतमस्तक होते रहते हैं। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा व्रत है।
दस लक्षण पर्व का सर्वोत्तम प्रभावित करने वाला दिवस व धर्म है, ब्रह्मचर्य। उसके प्रभाव से अग्नि भी पानी के रूप में परिणित हो जाती है। शील के प्रभाव से अग्निकुंड भी सोने के सिंहासन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। सीता की महिमा सारे संसार में शील के कारण ही तो प्रतिष्ठित है। सुभद्रा के शील के प्रभाव से चम्पा नगरी के बन्द दरवाजे हाथ लगाते ही एक क्षण में खुल जाते हैं। ब्रह्मचर्य क्या है? भीतर के तेज का नाम है, ब्रह्मचर्य। इसका रक्षण करने वाला ही सच्चा रक्षक कहलाता है। मनसा, वयसा, कायसा। मन, वचन व काया के तीनों योगो का जब एकीकरण होता है तब ब्रह्मचर्य की साधना सफल हो सकती है। सबसे कठिन व सबसे सरल साधना है ब्रह्मचर्य की। जब तक मन सधता नहीं तब तक बहूत कठिन है। मन सधते ही वह अपने आप सहज बन जाती है। भौतिक सुखों को तिलांजलि देकर इस पथ पर चलना दुधारी तलवार पर चलने के समान है, आगमकार बताते है। पर जो साहस के साथ आगे बढ़ जाते हैं, वो महापुरुष एक नया इतिहास गढ़ जाते हैं। सुदर्शन सेठ ने अपने शील के प्रभाव से सूली को सिंहासन के रूप में परिवर्तित करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। इस व्रत की साधना व आराधना करने वाला आगे बढ़कर सबके लिए प्रेरणा का श्रोत बनता है। केवल मन को मोड़ने की बात है। दिशा बदलते ही दशा तो अपने आप बदलने लग जाती है। गति व प्रगति के द्वारों का उद्घाटन तो स्वतः होने लग जाता है। पर्व हमेशा मन को पवित्र बनाने की प्रेरणा प्रदान करता है। दश दिवस तक सतत साधना करने वाला व्यक्ति ही तो आगे जाकर साधक के रूप में प्रतिष्ठित होता है। व्रत धारण करने के बाद साधना का मार्ग सहज व सरल महसूस होने लग जाता है। ब्रह्मचर्य ब्रह्मत्व को प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। सारा विश्व उसकी परिधि में समाने लग जाता है। देवता लोग तो ऐसे व्यक्तियों को देखते ही हर्ष से किलकारियाँ गुंजायमान करने लग जाते हैं व उनका वर्धापन करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। ब्रह्मचारी के निवास के ऊपर से उड़ने वाले देव विमान भी आकाश में स्थिर हो जाते हैं व देवता भी नीचे उतरकर प्रणत होने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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ब्रह्मत्व को प्राप्त करने का मार्ग है- ब्रह्मचर्य।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 252/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
जीवनी शक्ति का नाम है- ब्रह्मचर्य। जो व्यक्ति ब्रह्मत्व को प्राप्त करना चाहता है उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वोत्तम उपाय है। ब्रह्म के नजदीक ले जाने वाला है, ब्रह्मचर्य। इसकी साधना बहुत ही सहज व सरल है। यदि मनोभावों को पवित्र रखने का प्रयास करें तो ब्रह्मचर्य से बढ़कर संसार में कोई तेज नहीं है। उस तेज के सामने सारे प्रकाश निस्तेज बन जाते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला व्यक्ति अपने वर्चस्व के द्वारा सारे संसार में भीष्म पितामह की तरह प्रतिष्ठित हो सकता है। केवल इस एक व्रत के कारण ही उनको इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति का व्यक्तित्व हमेशा निखरता रहता है। उसके तेज से सारा संसार प्रभावित होता है। स्वामी विवेकानन्द ने ब्रह्मचर्य के वर्चस्व के कारण पुरे विश्व में अपना लोहा मनवाया था। अनेकों ललनाएँ, विश्व सुंदरियाँ उनके सहचार्य के लिए तरसती रहती थी। उनके सामीप्य के लिए ललचाती थी। पर उनके तेज व ओज के कारण उनके निकट आने का साहस नही कर पाती थी। ब्रह्मचर्य के सामने मानव तो क्या देव व दानव भी नतमस्तक होते रहते हैं। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा व्रत है।
दस लक्षण पर्व का सर्वोत्तम प्रभावित करने वाला दिवस व धर्म है, ब्रह्मचर्य। उसके प्रभाव से अग्नि भी पानी के रूप में परिणित हो जाती है। शील के प्रभाव से अग्निकुंड भी सोने के सिंहासन के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। सीता की महिमा सारे संसार में शील के कारण ही तो प्रतिष्ठित है। सुभद्रा के शील के प्रभाव से चम्पा नगरी के बन्द दरवाजे हाथ लगाते ही एक क्षण में खुल जाते हैं। ब्रह्मचर्य क्या है? भीतर के तेज का नाम है, ब्रह्मचर्य। इसका रक्षण करने वाला ही सच्चा रक्षक कहलाता है। मनसा, वयसा, कायसा। मन, वचन व काया के तीनों योगो का जब एकीकरण होता है तब ब्रह्मचर्य की साधना सफल हो सकती है। सबसे कठिन व सबसे सरल साधना है ब्रह्मचर्य की। जब तक मन सधता नहीं तब तक बहूत कठिन है। मन सधते ही वह अपने आप सहज बन जाती है। भौतिक सुखों को तिलांजलि देकर इस पथ पर चलना दुधारी तलवार पर चलने के समान है, आगमकार बताते है। पर जो साहस के साथ आगे बढ़ जाते हैं, वो महापुरुष एक नया इतिहास गढ़ जाते हैं। सुदर्शन सेठ ने अपने शील के प्रभाव से सूली को सिंहासन के रूप में परिवर्तित करके सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। इस व्रत की साधना व आराधना करने वाला आगे बढ़कर सबके लिए प्रेरणा का श्रोत बनता है। केवल मन को मोड़ने की बात है। दिशा बदलते ही दशा तो अपने आप बदलने लग जाती है। गति व प्रगति के द्वारों का उद्घाटन तो स्वतः होने लग जाता है। पर्व हमेशा मन को पवित्र बनाने की प्रेरणा प्रदान करता है। दश दिवस तक सतत साधना करने वाला व्यक्ति ही तो आगे जाकर साधक के रूप में प्रतिष्ठित होता है। व्रत धारण करने के बाद साधना का मार्ग सहज व सरल महसूस होने लग जाता है। ब्रह्मचर्य ब्रह्मत्व को प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन है। सारा विश्व उसकी परिधि में समाने लग जाता है। देवता लोग तो ऐसे व्यक्तियों को देखते ही हर्ष से किलकारियाँ गुंजायमान करने लग जाते हैं व उनका वर्धापन करने के लिए तत्पर हो जाते हैं। ब्रह्मचारी के निवास के ऊपर से उड़ने वाले देव विमान भी आकाश में स्थिर हो जाते हैं व देवता भी नीचे उतरकर प्रणत होने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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विकास का मार्ग प्रशस्त करती है- साक्षरता।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 253/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
जीवन में ज्ञान का बहुत बड़ा महत्त्व है। जब तक ज्ञान का दीपक प्रज्ज्वलित नहीं होता है, तब तक अज्ञान के तिमिर का नाश नहीं होता है। बिना अंधकार को हरे ज्योति का कोई मूल्य नहीं है। ज्ञान जीवन का सर्वोत्तम धर्म व धन होता है। बिना सम्यक ज्ञान के मिथ्यात्व का निवारण नहीं हो सकता है। ज्ञान रूपी धन का कभी हरण नहीं होता है। यह तो आप जितना खुले हाथों से बांटोगे वह उतना ही ज्यादा बढ़ता जायेगा। बिना बांटे वह विस्मृति की ओर पलायन करता जायेगा। ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक है हम सबसे पहले साक्षर बनने का प्रयास करें। अक्षर ज्ञान होते ही हम अपने कार्यों को आगे बढ़ा पाएंगे।
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस एक नयी प्रेरणा लेकर आता है। हम हर नागरिक के भीतर ज्ञान चेतना का जागरण करें। जागरण ही जीवन है। यह हमारा ध्येय बनाएंगे। तब ही हम जागरण का सन्देश प्रदान करने में सफल होंगे। आज ज्ञान के विकास का स्त्रोत प्रवाहित हो रहा है। इसका कारण है जन चेतना का जागरण। परिणामतः देश के नब्बे प्रतिशत बालकों के हाथ में पुस्तक नजर आने लगी है। बयासी प्रतिशत माता पिता जागरूक बने हैं। अपने बच्चों को विद्यालय के द्वार तक पहुंचाते है। चित्रों के द्वारा ज्ञान का विकास किया जाता है। कार्टूनों के माध्यम से साक्षर बनाये जाते हैं। आज हमारी साक्षरता छियासी प्रतिशत बढ़ गयी है। यह है हमारी प्रगति के आंकड़े। आज भी पच्चत्तर करोड़ आबादी पढाई लिखाई से दूर है। इस खाई को पाटने का कार्य भी किया जा रहा है। आज का युग तो इलेक्ट्रॉनिक युग है। कंप्यूटर के माध्यम से प्रोजेक्टर लगाकर बच्चों को आकर्षित किया जा रहा है। अक्षर ज्ञान के साथ संस्कार का कार्य और सघन रूप से चलाया जाये तो साक्षरता वरदान बन जायेगी। बिना संस्कार के अक्षर ज्ञान का भी कोई मूल्य नहीं रहेगा। ज्ञान का सार तो आत्मकल्याण व आत्म उत्थान ही है। जो बिना सद संस्कारों के निर्माण के असम्भव है। शिक्षा का प्रचार प्रसार होने के बाद भी हमारा देश आज काफी पिछड़ा हुआ है। भारत की साक्षरता दर काफी कम है। पुरुषार्थ में और सक्रियता लानी होगी। चिंतन के धरातल को भी विशाल बनाना होगा। केवल अक्षर ज्ञान ही नहीं जीवन का विज्ञान भी सिखलाना होगा। हमारे जीवन का क्या मूल्य है! जीवन का क्या ध्येय है! जब तक मौलिक गुणों का जागरण नहीं होगा, हमारा बहाया हुआ स्वेद व्यर्थ ही जायेगा। मानव के जीवन में यदि मानवता का अवतरण न हो तो मानव बनने का क्या अर्थ हुआ! अक्षरज्ञान हमारे को आत्मज्ञान की ओर बढ़ाये तभी इसकी महत्ता है। पाठशालाओं को संस्कार शालाओं में परिवर्तित नहीं करेंगे तब तक हम हमारे उद्देश्य में सफल नहीं होंगे। संस्कार ही संस्कृति का निर्माण करने वाला होता है। यदि संस्कृति सुरक्षित नहीं रही तो हम कहाँ सुरक्षित रहेंगे। संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए संस्कारों का जागरण जरुरी है। संस्कारों को पृष्ठ बनाये रखने के लिए अक्षर ज्ञान व साक्षरता जरुरी है। यदि विकास के लिए आगे बढ़ना है तो हमे सतत प्रयास करते रहना होगा।
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[08:34, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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प्रथम महिला अशोक चक्र की हकदार बनी- नीरजा भनोट।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 255/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
मारने वाला नही, हमेशा बचाने वाला, सुरक्षा प्रदान करने वाला महान होता है। अपने स्वार्थ को त्यागकर औरों के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाला व्यक्ति ही संसार में आदर्श उपस्थित करने में सफल हो सकता है। प्राण का हरण करना कोई बड़ी बात नहीं है। अपने प्राणों का बलिदान कर दूसरों की रक्षा करना, सुरक्षा की ढाल बनकर खड़े रहना, संकल्पवान व्यक्ति ही ऐसा कार्य कर सकता है। नारी शक्ति की महान श्रोत होती है। उनके अन्तःकरण में दया का दरिया हमेशा लहराता रहता है। वह पराये दर्द को भी अपना दर्द समझती है। इसलिए वह सामने विपरीत परिस्थितियों को देखकर झुकाने को तैयार हो जाती है। हार मानने का नाम नहीं लेती है। वह तो हर समय विजयी बनने के सपने ही देखती है। उसके साहस व संकल्प शक्ति को देखकर सब स्तब्ध व आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
ऐसी ही एक वीरांगना हुई थी- नीरजा भनोट। जिसने ऐसा इतिहास रच दिया जो सारे नारी समाज के लिए गौरव बन गया। उसकी यशोगाथा केवल भारत देश में ही नहीं सारा विश्व गाने लग गया था। जब वह एयर होस्टेस के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान कर रही थी। सारा विश्व आतंकवाद की चपेट में था। पर वह निडरता के साथ अपना कर्तव्य अदा कर रही थी। जिस विमान में वह सेवा दे रही थी, पाकिस्तान के नागरिक हवाई उड़ान पर थे। आतंकवादियों ने अपनी कार गुजारी का सिलिसिला चालू रखते हुए विमान को हाइजैक कर लिया। विमान के नागरिको को हवाई फायर कर उडाने को आमदा थे। उस समय नीरजा का नारित्त्व जाग्रत हो जाता है। आज यदि मैंने अपना शौर्य नहीं दिखलाया तब कब दिखलाउंगी! वीरता का उच्च आदर्श स्थापित करते हुए वह आतंकवादियों के सामने दीवार बनकर खड़ी हो गई। मेरे जीते जी तुम नागरिकों को गोलियां का शिकार नहीं बना सकते। वह चट्टान की तरह सीना तानकर खड़ी हो गयी। मैं मरने के लिए तैयार हूँ पर झुकने के लिए नहीं। वह स्वयं आतंकवादियों की गोलियों की शिकार हो गयी पर नागरिकों को पूरा सुरक्षा कवच प्रदान किया। उसका बलिदान रंग लाकर रहता है। नारी समाज का सीना गर्व से गर्वित हो जाता है। उन्नीस सौ तिरेसठ में जन्म लेने वाली नीरजा सबकी आँखों का तारा बन जाती है। उसके शौर्य व बलिदान की गाथाओं से पूरा विश्व गुंजायमान हो गया। भारत सरकार ने नव इतिहास रचते हुए एक नारी को सर्वप्रथम अशोक चक्र से सम्मानित करते हुए नारी जाति के गौरव को और गौरान्वित बना दिया। पाकिस्तान सरकार भी उसके बलिदान के सामने नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकी। वह तो उसे खुदा के रूप में स्वीकार करने लगे और अपने देश का सर्वोच्च सम्मान तमगा-ए-इंसानियत से सम्मानित किया। इतना सम्मान प्राप्त करना भी कोई कम बात नहीं है। अपने प्राणों  का बलिदान देकर औरों की रक्षा करना बहूत बड़ी बात है। ऐसे संस्कारों का निर्माण हमारे देश भारत में ही हो सकता है। यहाँ की मिटटी ही बलिदान की महान भूमि रही है। यहाँ पर पैदा होने वाला हर नागरिक बलिदानी ही होता है। इसीलिए तो हमारे देश का गौरव सारे संसार में गुंजायमान है। नारी शक्ति का शौर्य हमेशा ही त्याग व बलिदान की प्रेरणा देने वाला रहा है।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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विवेकानंद ने शिकागो में विवेक जागरण का सन्देश प्रदान किया।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 256/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
विवेकवान व्यक्ति ही औरों के विवेक को जागृत करने में सफल हो सकता है। जिसका स्वयं का विवेक जागृत होता है वहीं व्यक्ति विवेकवान बन सकता है। विनम्रता व्यक्ति को विवेकवान बनाती है। जो व्यक्ति अपने गुरु के प्रति विनम्र होता है वही व्यक्ति अपनी प्रज्ञा के द्वारा सारे संसार को प्रकम्पित करने में सफल हो सकता है। उसका गूंजता हुआ स्वर सबको एकाग्रह बना देता है। अन्तःकरण से निकलने वाला ओजस्वी स्वर सबके भीतर जागर्ति का शंखनाद कर देता है। ऐसे व्यक्तित्व के धनी जो पुरुष होते है वह विश्वव्यापी होते हैं। उठो जागो। तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त नहीं हो जाती। इस एक स्वर ने सारे संसार में एक शक्ति का जागरण कर दिया। हर श्रोता के मन में दृढ इच्छा शक्ति का जागरण हो जाता है। पुरुषार्थ प्रविष्ट होने लग जाता है। विचार अंगड़ाई लेने लग जाते हैं।
ऐसी ओजस्वी विचारधारा को गुंजायमान करने वाले थे भगवा वेशधारी स्वामी विवेकानन्द। केवल तीस वर्ष की अवस्था में अट्ठारह सौ तिरानवे में कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज करने पर चार सौ वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में डेढ़ लाख व्यक्तियों को संबोधित करते हुए गुंजायमान किया। इकतीस मई को अपने साथी जमशेद जी टाटा के साथ बम्बई से रवाना होकर मिशिगन झील के किनारे शिकागो के माय पैलेश में पचास से अधिक धर्म गुरुओं उपस्थिति में केवल पांच मिनट का समय दिया गया। भगवा वस्त्र जो हास्य का कारण बन रहा था पर विचारों की स्फुरणा से वह विवेक जाग्रत करने वाला क्षण बन गया। हास्य विस्मय में बदल जाता है। विनम्रता के साथ परिषद के हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं। सर स्वतः ही नतमस्तक हो जाते हैं। पांच मिनट के लिए मानो विश्व थम गया हो। श्वांस रुक गए हो। सम्मोहन का वातावरण बन गया। आयोजको की मानो बांछे खिल गयी। उनका विश्व धर्म सम्मेलन के लिए किया गया पुरुषार्थ सार्थक नजर आने लगा। पचास धर्म गुरु पांच मिनट के लिए मूर्तिवत बन गए थे। हड्डियों को कम्पकम्पा देने वाली ठण्ड में भी नई ऊष्मा का संचार हो गया। भोजन के समय तिरस्कार करने वाले धनाढ्य लोग हाथ जोड़ते हुए नजर आने लगे। विद्धवानो के तो वे नयन सितारे बन गए थे। अहंकार पद प्रतिस्ठा पूजा व सम्मान के लिए लड़ने वाले विद्धवान लोग भी इस ज्ञान सागर को देखकर दांतो तले अंगुली दबाने पर मजबूर हो गए। अज्ञान का पर्दा आँखों से हट गया था। यथार्थ का दिग दर्शन होना प्रारम्भ हो गया था। अभिमान विनम्रता में बदलता जा रहा था। केथरीन एबोट सेनवोर्न ने कहा विवेकानन्द जैसा तेजस्वी पुत्र पाकर शिकागो की धरती व धर्म संसद धन्य हो गयी। जान राइट बोस्टन ने अभिवादन करते हुए कहा आप उस सूर्य की रौशनी है जिस रौशनी पर पुरे विश्व का अधिकार है। एक विचार ने विवेकानन्द को विश्व व्यापी बना दिया। फोटोग्राफर थॉमस हेरिमन ने विवेकानन्द के सात फ़ोटो को केनवस पर उतारकर  सारे विश्व में उनके विचारों को फैला दिया। इस दिन ने विवेकानन्द को विश्व व्यापी बना दिया।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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विवेकानंद ने शिकागो में विवेक जागरण का सन्देश प्रदान किया।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 256/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
विवेकवान व्यक्ति ही औरों के विवेक को जागृत करने में सफल हो सकता है। जिसका स्वयं का विवेक जागृत होता है वहीं व्यक्ति विवेकवान बन सकता है। विनम्रता व्यक्ति को विवेकवान बनाती है। जो व्यक्ति अपने गुरु के प्रति विनम्र होता है वही व्यक्ति अपनी प्रज्ञा के द्वारा सारे संसार को प्रकम्पित करने में सफल हो सकता है। उसका गूंजता हुआ स्वर सबको एकाग्रह बना देता है। अन्तःकरण से निकलने वाला ओजस्वी स्वर सबके भीतर जागर्ति का शंखनाद कर देता है। ऐसे व्यक्तित्व के धनी जो पुरुष होते है वह विश्वव्यापी होते हैं। उठो जागो। तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त नहीं हो जाती। इस एक स्वर ने सारे संसार में एक शक्ति का जागरण कर दिया। हर श्रोता के मन में दृढ इच्छा शक्ति का जागरण हो जाता है। पुरुषार्थ प्रविष्ट होने लग जाता है। विचार अंगड़ाई लेने लग जाते हैं।
ऐसी ओजस्वी विचारधारा को गुंजायमान करने वाले थे भगवा वेशधारी स्वामी विवेकानन्द। केवल तीस वर्ष की अवस्था में अट्ठारह सौ तिरानवे में कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज करने पर चार सौ वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में डेढ़ लाख व्यक्तियों को संबोधित करते हुए गुंजायमान किया। इकतीस मई को अपने साथी जमशेद जी टाटा के साथ बम्बई से रवाना होकर मिशिगन झील के किनारे शिकागो के माय पैलेश में पचास से अधिक धर्म गुरुओं उपस्थिति में केवल पांच मिनट का समय दिया गया। भगवा वस्त्र जो हास्य का कारण बन रहा था पर विचारों की स्फुरणा से वह विवेक जाग्रत करने वाला क्षण बन गया। हास्य विस्मय में बदल जाता है। विनम्रता के साथ परिषद के हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं। सर स्वतः ही नतमस्तक हो जाते हैं। पांच मिनट के लिए मानो विश्व थम गया हो। श्वांस रुक गए हो। सम्मोहन का वातावरण बन गया। आयोजको की मानो बांछे खिल गयी। उनका विश्व धर्म सम्मेलन के लिए किया गया पुरुषार्थ सार्थक नजर आने लगा। पचास धर्म गुरु पांच मिनट के लिए मूर्तिवत बन गए थे। हड्डियों को कम्पकम्पा देने वाली ठण्ड में भी नई ऊष्मा का संचार हो गया। भोजन के समय तिरस्कार करने वाले धनाढ्य लोग हाथ जोड़ते हुए नजर आने लगे। विद्धवानो के तो वे नयन सितारे बन गए थे। अहंकार पद प्रतिस्ठा पूजा व सम्मान के लिए लड़ने वाले विद्धवान लोग भी इस ज्ञान सागर को देखकर दांतो तले अंगुली दबाने पर मजबूर हो गए। अज्ञान का पर्दा आँखों से हट गया था। यथार्थ का दिग दर्शन होना प्रारम्भ हो गया था। अभिमान विनम्रता में बदलता जा रहा था। केथरीन एबोट सेनवोर्न ने कहा विवेकानन्द जैसा तेजस्वी पुत्र पाकर शिकागो की धरती व धर्म संसद धन्य हो गयी। जान राइट बोस्टन ने अभिवादन करते हुए कहा आप उस सूर्य की रौशनी है जिस रौशनी पर पुरे विश्व का अधिकार है। एक विचार ने विवेकानन्द को विश्व व्यापी बना दिया। फोटोग्राफर थॉमस हेरिमन ने विवेकानन्द के सात फ़ोटो को केनवस पर उतारकर  सारे विश्व में उनके विचारों को फैला दिया। इस दिन ने विवेकानन्द को विश्व व्यापी बना दिया।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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जैन धर्म का वनस्पति विज्ञान आज साकार रूप ग्रहण करता जा रहा है ।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 📝चिंतन लेखमाला
        【भाग - 257/ लावा-सरदारगढ़】
                         ★जागो★
भगवान महावीर एक वैज्ञानिक तत्ववेत्ता व्यक्ति थे। उनकी वाणी में विज्ञान के सूक्ष्म तत्व भरे हुए थे। बिना विज्ञान के वो एक भी शब्द नहीं बोलते थे। उनकी हर वाणी विज्ञान को कसौटी पर कसकर ही प्रवाहित होती थी। आज भी बत्तीस आगम विज्ञान से ओतप्रोत है। इतना सूक्ष्म विज्ञान और किसी ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलेगा। हजारों वर्षों पूर्व भी विज्ञान जीवित था। भगवान महावीर ने जगत के सूक्ष्म तत्वों को आत्मसात किया था। प्राणी मात्र के प्रति उनके मन में दया व अनुकम्पा थी। हर छोटे से छोटे प्राणी को जीने का अधिकार है, उन्होंने स्पष्ट उद्घोषणा की थी। शरीर का आकार व प्रकार छोटा या बड़ा हो सकता है। पर सुख या दुःख का वेदन करने में कोई अंतर नहीं है। फिर चाहे वो शरीर हाथी का हो या चींटी का। आत्मा का भेद सबमे छिपा हुआ है। जीने का अधिकार सबको है। बड़े प्राणियों को बचाने के लिए छोटे प्राणियों का वध नहीं कर सकते। यह धर्म नहीं पाप का रास्ता है। इतनी बड़ी उद्घोषणा महावीर जैसा व्यक्ति ही कर सकता है। समानता के इस दर्शन ने ही उनको इंसान से भगवान के रूप में प्रतिष्ठित किया था।
महावीर संवेदनशील महापुरुष थे। उन्होंने यह उद्घोषणा की कि पृथ्वी, वायु, पानी, अग्नि व वनस्पति में जीवन है। उनको भी स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार है। पर उस समय उनकी इन बातो का मख़ौल उड़ाया गया। पर वर्तमान परिवेश में वैज्ञानिकों ने नए नए आविष्कारों, यंत्रों व खोजों के द्वारा उन सिद्धान्तों को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान कर दी है। वैज्ञानिको का ध्यान ऋतू परिबर्तन पर जाता है। ऋतू परिवर्तन के साथ सारा भूमण्डल परिवर्तित हो जाता है। इसका कारण क्या है! वनस्पति जगत पर ध्यान जाता है। पतझड़ के समय पेड़ों की पत्तियों का रंग पीला क्यों पड जाता है! पत्ते झड़ क्यों जाते है। उक्त बाते वैज्ञानिकों को चौंकाती है। कारण क्या है? इस एक कारण ने उनकी सोच को आगे बढ़ाया। पेड़ो के भोजन बनाने की प्रक्रिया भी बहुत सूक्ष्म व रहस्य भरी हुई है। वह अपनी जड़ों से पानी व वायुमण्डल से कार्बन डाई ऑक्साइड को ग्लूकोस व ऑक्सीजन के रूप में परिवर्तित करके जीवन शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। उस शक्ति से पेड़ शक्तिशाली व मजबूत बनता जाता है। इतना ही नहीं स्वयं का पोषण करने के पश्चात ऑक्सीजन को छोड़ देता है जो मानव जाति के लिए प्राणवान बन जाती है। पतझड़ में सूर्य की किरणे बहुत कम मिलती है। परिणामतः प्रकाश के अभाव में पत्तियां भोजन का निर्माण नहीं कर पाती है। ग्लूकोस के अभाव में क्लोरोफिल गायब हो जाता है। हरी पत्तिया पिली पड जाती है और वृक्ष से झड़कर अपनी इह लीला समाप्त कर लेती है। वैज्ञानिको ने यह सिद्ध कर दिया कि पेड़ पौधों में भी जीवन व जीवनी शक्ति होती है। मानव व वनस्पति में इस हिसाब से कोई अंतर नहीं है। वह भी मनुष्य की तरह हवा पानी ग्रहण करती है। बीमार होती है और मृत्यु को प्राप्त होती है। आज पूरा विश्व इस तथ्य को स्वीकार करने लग गया है। महावीर की वाणी को वैज्ञानिकों ने प्रमाणित करके दिखला दिया।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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सदाचार व संस्कार निर्माण की भाषा है- हिन्दी।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 💦चिंतन लेखमाला💦
                      【भाग - 258】
      【14/09/17 - लावा सरदारगढ़ 】
                         ★जागो★
सदाचार से बढ़कर संसार में कोई शुद्धाचार नहीं है। जब तक हमारे मानस में सदाचार का जागरण नहीं होगा तब तक हम हमारे जीवन का निर्माण नहीं कर सकेंगे। शरीर तो केवल एक हड्डियों का ढांचा मात्र है जो हर एक प्राणी मात्र को प्राप्त होता है। उसमे प्राणतत्व है- सदाचार। मानव में यदि मानवता नहीं है तो फिर उसका क्या मूल्य है! फिर तो वह मानव के आकार में दानव ही है। इंसान के वेश में शैतान से कम नहीं है। सदाचार का जन्म होना ही मानवता का मुस्काना है। सदाचार का निर्माण कब होगा? जब हमारे भीतर में सद संस्कारों का निर्माण होगा। जब तक सदसंस्कारों का निर्माण नहीं होगा तब तक हमारा जीवन मिटटी का एक लोधा ही होगा।  प्राणवत्ता नहीं होगी। प्राणवत्ता का संचार हमेशा संस्कारों से ही होता है और संस्कारों का निर्माण हमेशा भाषा से होता है। मातृ भाषा का हमेशा विशेष महत्त्व होता है। भाषा के प्रति हमारे मन में जब तक आकर्षण पैदा नहीं होगा तब तक हमारे मन में अपनत्व के संस्कारों का जागरण नहीं होगा। बिना अपनत्व के संबंधों का विकास नहीं होगा। बिना विकास के हम सभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे।
हिंदी हमारे हृदय की भाषा है। जब तक हम हमारी भाषा का प्रयोग नहीं करेंगे तब तक देश भक्ति के संस्कारों का जागरण नहीं होगा। परायी भाषा हमेशा हमारे को भटकाने वाली होती है। तोड़ने वाली होती है। आज जो परिवार समाज टूट रहें है उसका सबसे उग्र कारण है- आयातित भाषा का प्रयोग करना। वह तो हमारे रसाताल की ओर ले जाने वाला ही होगा। माँ शब्द का उच्चारण होते ही हमारे मन में ममत्व का जागरण होता है। स्नेह का स्पंदन होने लग जाता है। वात्सल्य का पारावार उमड़ने लग जाता है। माँ की जगह हमने जब से मॉम शब्द का उच्चारण करना प्रारम्भ किया तब से हमको हमारी माँ मोम की मूर्ति नजर आने लग गयी है। उसके प्रति हमारा आदर व सम्मान कम हो गया है तो माँ के मन से ममत्व भी अलविदा होने लग गया है। परिणामस्वरूप आज हमारे बुजुर्गों का क्या अस्तित्व रह गया है। सम्मान अपमान में परिवर्तित हो गया है। वृद्धाश्रम का एक प्रवाह प्रवाहित होने लग गया है। वो वहां पर पिंजरे के पक्षी की तरह कैद हो गए है। तड़फ तड़फ के मरने के सिवा कोई चारा नहीं है। संस्कारों का जो अखूट खजाना दादा दादी नाना नानी होती थी तो परिवार को एक वात्सल्य की डोर में बांधकर रखती थी। वह वात्सल्य पलायन करने लग गया है। पारिवारिक वातावरण खत्म हो गया। शादियां बर्बादियों में परिणित हो गयी। बच्चों को पैदा करना एक झंझट बनता जा रहा है। यह विदेशी भाषा और संस्कृति हमारे को कौन से गर्त में लेजाकर समाहित करेगी! विदेशी भाषा से हम धन कमाकर पेट की आग तो शांत कर सकते हैं पर मन को मोहित नहीं कर सकते। मन में ममत्व तो हमारी मातृ भाषा ही पैदा करेगी। हिंदी भाषा हमारे मन की भाषा है। हमारे को क्या हमारी भाषा का गौरव नहीं होना चाहिए? चौदह सितम्बर का दिन आता है, हम हिंदी दिवस मनाकर इतिश्री कर लेते हैं। जननी जन्मभूमि व जन्मभाषा ही हमारे को प्राणवाण बनाये रखने वाली है। हमारी मातृ भाषा ही हमारा गौरव बढ़ाने वाली है। इन संस्कारों से बाल पीढ़ी को संस्कारित करना जरुरी है। तब ही हिंदी दिवस मनाने की सार्थकता है।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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समाधी मरण का वरण करना सीखा गए थे, विनोबा भावे।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 💦चिंतन लेखमाला💦
                      【भाग - 259】
      【15/09/17 - लावा सरदारगढ़ 】
                         ★जागो★
जीना ज्ञान है तो मरण उच्च विज्ञान है। जीना तो सब जानते है पर मरना कोई कोई ही जानता है। जो मरना जान लेता है वो अपने जीवन को सार्थक व सफल बना लेता है। अधिकांशतः तो व्यक्ति जीते नहीं है केवल सांसो का भार ढोते है। जीना तो उनको आता ही नहीं है। श्वांस लेना जीना है और श्वांस का बंद हो जाना मरण है। ऐसे जन्म और मरण तो हमने कितनी बार कर लिए। कोई गिनती ही नहीं है। अंधकार बनकर नहीं प्रकाश्वान बनकर जीना ही वास्तव में जीवन है। हम तो केवल अन्धकार की गलियों में भ्रमण कर रहे हैं। मकड़ी के जाले में कैद होकर अपने जीवन को पूरा कर रहें है। ऐसा जीवन तो व्यर्थ है। किसी काम का नहीं है। यदि प्राणवान बनकर जीयें और सबको प्रेरणा प्रदान करके मरे तब हमारे जीवन की सार्थकता है। ऐसे प्राणवान पुरुष ही महापुरुष कहलाने के अधिकारी होते हैं। 
विनोबा भावे एक ऐसे ही ऊर्जावान जीवन जीने वाले व्यक्ति है। जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को देश के लिए समर्पित कर दिया। देश के नैतिक विकास व समानता के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। भूदान आंदोलन ने उनको विश्व व्यापी बना दिया। समरसता का वातावरण बनाये रखने के लिए उन्होंने गांव गांव नगर नगर पदयात्रा का सशक्त आलम्बन लिया था। जनता उनको भक्त नहीं हमेशा भगवान मानती थी। नैतिकता के पथ पर अग्रसर होना बहुत कठिन काम है। एक बार आश्रम को उन्होंने साधना स्थली व तप स्थली बना लिया। सम्पूर्ण देश के नेता व कार्यकर्ता मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए पहुँचते रहते थे। विनोबा भावे की तरह आचार्य श्री तुलसी ने भी अणुव्रत के दीप को प्रज्ज्वलित किया था। उस प्रकाश को जन जन तक फ़ैलाने के लिए उन्होंने भी पदयात्रा का सहारा लिया था। दक्षिण यात्रा के दौरान जब उनका आश्रम में पधारना हुआ तब दो महापुरुषों के मिलन का वह क्षण सबके लिए यादगार बन गया। वह आश्रम आध्यात्म की महान भूमि बन गयी थी। आपसी विचार विमर्श के कारण चिंतन की अनेकों खिड़कियां खुलती जा रही थी। दोनों के दिल व दिमाग की विशालता ने उस मिलन को अविस्मरणीय बना दिया। विनोबा भावे ने सहजता से कहा- आचार्य, मैंने अपना जीवन जागरूकता से जीया है। अब मेरी इच्छा है मरण को जागरूकता से वरण करूँ। मेरी हार्दिक इच्छा है की मैं आपके जैन धर्म के अनुरूप मृत्यु का वरण करूँ। उस समय का किया गया चिंतन विनोबा भावे के अंतिम क्षणों में साकार हो गया। शारीरिक क्षमताएं होते हुए सब कार्यों से मुक्त होकर आश्रम का दायित्व सम्भलाकर पूर्ण जागरूक अवस्था में संथारा व्रत ग्रहण कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। पूर्ण कायोत्सर्ग अवस्था में अपने आप को अवस्थित कर लिया। राग द्वेष से उन्मुक्त होकर जागरूकता के साथ अपने मार्ग पर बढ़ गए। चिंतन की धारा निर्मल से निर्मल बनती जा रही थी। बिना किसी हलन चलन के शांत आहिस्ते आहिस्ते मृत्यु का साक्षात्कार करते हुए दीप की ज्योति से सूर्य का रूप धारण करते हुए सबको अलविदा कह दिया। वह मृत्यु सारे विश्व को प्रेरणा प्रदान करने वाली बन गयी। जब ऐसे महापुरुषों की जयंती आती है तब मन में नई जाग्रति पैदा होने लग जाती है।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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हिंदी व राजस्थानी साहित्य के सृजनहार थे- कवि कन्हैयालाल जी सेठिया।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 💦चिंतन लेखमाला💦
                      【भाग - 260】
      【16/09/17 - लावा सरदारगढ़ 】
                         ★जागो★
जब व्यक्ति के मन में जूनून सवार हो जाता है तब वह अपने आप को रोक नहीं पाता है। वह तो पानी के प्रवाह की तरह हमेशा गतिमान बना रहता है। उसकी यात्रा तो प्रारम्भ होती है पर कभी सम्पन्न नहीं होती है। वह अविकल रूप से अविश्राम गतिमान बना रहता है। मन के अन्तःकरण में एक टीस पैदा हो जाती है जो उसे रुकने नहीं देती है। चिंतनधारा हर समय गतिमान बनी रहती है। विचारों का खजाना विशाल से विशालतम बन जाता है। जब उनके विचार कलम से कागज पर उतरने लगते है तब ऐसा लगता है मानों मोतियों की लडालूम मालाएं उतरती जा रही हो। एक एक शब्द मोती की तरह चमकने व दमकने लग जाता है। उनके अन्तःकरण की वेदना जब प्रकट होती है तब वह साहित्यकार विचारक लेखक चिंतक व कवि के रूप में विख्यात हो जाता है। कवि लोग धुन के धनी होते हैं। उनकी कलम सबको चमत्कृत कर देती है। वो भाषा प्रान्त व समुदाय से ऊपर उठकर मानवता का सृजन करने वाले होते हैं।
ऐसे ही एक श्रेष्ठ कवी थे श्री कन्हैया लाल जी सेठिया। जो बीकानेर संभाग के चुरू जिले के सुजानगढ़ कस्बे के धनाढ्य परिवार में जन्म लेकर एक कवि के रूप में विख्यात हुए। वो साहित्य को ही सबसे बड़ा धन मानते थे। भौतिकता की चकाचोंध से ऊपर उठकर सरस्वती की साधना व आराधना में अपने आप को समर्पित कर दिया। देशभक्ति की भावना भी कूट कूटकर भरी थी। स्वतंत्रता संग्राम के वो एक सिपाही थे। महावीर का अनेकांत उनके विचारों का स्त्रोत था। तुलसी का अणुव्रत प्रेरणा पाथेय था। धोरों की धरती में रहकर जो साहित्य का निर्माण किया वो वास्तव में हृदय को झँकझोरने वाला था। देश भक्ति की भावना जगाने वाला गीत 'कमर काठी कस लीज्यो' तो 'अरे घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो" महाराणा प्रताप के शौर्य को जगाने वाली कृति थी। पीथल व पाथल आपकी महत्त्वपूर्ण रचना थी। आपकी अनेकों रचनाओं ने विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में अपना स्थान प्राप्त किया। 'धरती धोरां री' आपकी विश्व प्रसिद्ध रचना बनी तो आपके बनाये सोरठे, दोहे, उर्दू के शेर, गजल, छेद, तुकांत व अतुकांत काव्य प्रवाह सबको अपने प्रवाह में प्रवाहित बनाने वाला बना। चालीस से अधिक हिंदी व राजस्थानी पुस्तको का लेखन करके सरस्वती के भण्डार को भरने का प्रयास किया। रमणिया रा सोरठा, गळगचिया रचनाये तो सबको भावविभोर करके समां बांधने वाली रचनाये थी। कुंकउ, धर कुंचा धर मंजला राजस्थानी की सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ थी। मायड़ को हेलो सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाली रचना थी। बनफूल, प्रतिबिम्ब, दीपकिरण, अग्निवीणा, मेरा युग व आज हिमालय बोला हिंदी जगत की विशिष्ट रचनाएँ बनी। निर्ग्रन्थ साहित्य कृति पर भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मूर्ति देवी पुरुस्कार से पुरुस्कृत किया गया। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य मनीषी के रूप में स्वीकार किया गया। 11 सितम्बर उन्नीस सौ उन्नीस को जन्म लेने वाला वह व्यक्तित्व 11 नवम्बर दो हजार आठ को दीप से महान सूर्य बनकर हमारे को अलविदा कह गया। उनका सहित्यप्रेम हमारी थकावट को मिटाने वाला बन गया था। साहित्य दर्शन और राजनीती आपके प्रिय विषय थे। आप खुले विचारों वाले थे। हमेशा शुद्ध समालोचना करते रहते थे। ऐसे व्यक्ति की जन्म जयंती या पूण्य तिथि आती है तब सहज ही साहित्य की अविरल धारा अन्तःकरण में  बहने लगती है।
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[08:35, 9/19/2017] Munishree Ji.: जय भिक्षु           ||अर्हम||       जय महाश्रमण

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सत्य के पथ को प्रकाशवान बनाने वाले थे- गुरु नानक ।
                   - मुनि श्री भूपेंद्र कुमार जी
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                 💦चिंतन लेखमाला💦
                      【भाग - 261】
      【17/09/17 - लावा सरदारगढ़ 】
                         ★जागो★
मानवता का पाठ पढ़ाने वाला ही हमेशा महान बनता है। जब हमारे भीतर में मानवता का जागरण होता है। तब सत्य शील व संतोष की त्रिवेणी गंगा जमुना व सरस्वती की तरह अपने आप ही प्रवाहमान बन जाती है। इस पावन त्रिवेणी में डुबकी लगाने वाला हर प्राणी अपने आप को पावन व पवित्र बना लेता है। मानवता का दीप एक बार प्रज्ज्वलित होने के बाद दानवता के भूत को पलायन करने पर मजबूर कर देता है। मानवता हमेशा अध्यात्म लौकिक व परलौकिक सुख शांति समृद्धि के लिए श्रम शक्ति का नियोजन मनोयोग के साथ करने की प्रेरणा प्रदान करता है। अशुभ को शुभ में बदलना ही मानवता है। गलती को धिक्कार नहीं हमेशा परिष्कार की प्रेरणा प्रदान करना ही मानवता है। अहंकार को मिटाकर अर्हम के सूर्य को प्रगटीकरण करना ही महानता है। अहंकार व्यक्ति को भटकाता है तो अर्हम शिवशक्ति की ओर अग्रसर करने वाला प्राण तत्व है। सामान्य से महान बनना ही महापुरुषों का जीवन दर्शन होता है।
महात्मा गांधी ने कहा था घमण्डी को प्रकाश मिल ही नहीं सकता है।  गुरु नानक देव जी इसलिए महान बन गए क्योंकि उन्होंने अहंकार को मिटाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा- अहंकार मिटाने के लिए प्रार्थना, मन को नियंत्रित करने के लिए साधना व संकल्पवान बनने के लिए उपासना का मार्ग ही सर्वोत्तम है। गुरु नानक एक क्रांतिकारी सन्त व समाज सुधारक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की। कुरूतियों व आडम्बरों का खण्डन ही नहीं किया बल्कि धर्म के नाम पर चलने वाली अंधपरम्पराओं का भी तीव्रता से खंडन किया। उनका सूक्ष्म दर्शन आगे जाकर महान दर्शन व पथ बन गया। जो सिक्ख धर्म के नाम से विख्यात हो गया। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गुरु नानक देव का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को प्रकाश पर्व के रूप में मनाया जाता है। महापुरुषों का जन्म प्रकाशमय ही होता है। लाहौर के तलवंडी में जला एक दीप सब के लिए दीपावली के रूप में प्रकाशमय बन गया। नानक देव की सीख आगे जाकर गुरुवाणी के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। शोषण अन्याय अलगाववाद और संवेदन शून्यता के खिलाफ लड़ने वाला बालक गुरु नानक देव के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। सत्य के पथ को  प्रकाश्वान बनाने के लिए वो हमेशा जागरूक रहते थे। मानवता के महान पथ प्रदर्शक नानक देव ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानवता के विकास में समर्पित कर दिया था। वो हमेशा दुर्जनों को एक ही स्थान पर निवास करने का आशीर्वाद प्रदान करते थे तो सज्जनों को हमेशा बिखरते रहने का सन्देश प्रदान करवाते थे। सज्जन लोग जितने बिखरेंगे, जहाँ जायेंगे वहां पर सज्जनता का विकास होता जायेगा। ऐसे व्यक्ति का महान पूण्य स्मरण ही सबके लिए प्रेरणादायी है।
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Tapsvi muni shree Bhupendra kumar ji

History of rajsamand jhill by muni bhupendra Kumar ji